छंद:
हैं निर्बंध मेरे;
शब्द:
मुक्ताकाश के
उज्जवल सितारे;
भाव:
धरती के धधकते
कोख में जो
खौलता लावा
धरा है,
उसकी सारी
उष्णता और
आँच धारे-
और सागर की
अगम गहरायिओं को
नापते से-
या मलय के
स्रोत की
चिर-खोज में
खोए हुए से-
प्रीत की या
मधुरिमा को,
स्नेह की मृदु
चाँदनी को
अपने ‘पारस’ सी
तिलस्मी छुअन से
नित नए कुंदन सा निखारे ,
मेरी भाषा:
पुंपुरुष सी
शक्तिशाली,
युद्ध के
आह्वान पर
उद्यत - रणातुर
क्षत्रिय के हाथ में
स्थिर खड़ी
वो खड्ग
जो है दामिनी सी चमचमाती;
और सब उपमान मेरे:
साँस लेते,
बोलते-रोते-बिलखते,
मनुज से जीवित,
सूर्य से जागृत,
सुसंस्कृत……
------किंतु वो औरत
जो ख़ुद को
बेच देती,
उसके अन्दर की
प्रबल
जठराग्नि को
क्या पढ़ सके हैं?
या की जो
अंधे की आँखों में
गहन-अंधेरे
दलदल हैं-
उन्हें कुछ भर सके हैं?
और दंगों में
जो वहशत नाचती है,
युद्ध में
शोणित-सुसिंचित
भूमि पर
मरते हुए उस
वीर की विधवा की
ठूँठे पेड़ सी
निर्ल्लज-नंगी मांग में,
औ ‘रेप’ से पहले
बिलखती
यौवना की
आँख में जो
नंगी दहशत
नाचती है-
एक पल छिन
को भी उनकी
क्या व्यथा
ये कह सके हैं?
भूखे बच्चों को
पकाकर जो कहानी
है सुलाती माँ ,
खेतिहर वो
जिसकी सारी फसल
भीषण राक्षसी सी
बाढ़ आकर
खा गयी हो,
वो जो प्रिय के
इंतज़ार में
आज भी
उस पेड़ के
नीचे पड़ी
दिन-रात रहती,
पत्ते गिनती,
कंकडों को बीनती,
आँख पर फिर
हाथ रखकर,
पूर्व से आते हुए
रस्ते को इकटक देखती
हो गई बुढिया ,
और है पगला गयी जो,
एक वो भूखा भिखारी
रोटी जिसके हाथ से
झट छीनकर
गुम हो गया
कुत्ता आवारा,
उनकी पीड़ा-वेदना की
क्या कथा
ये कह सके हैं?
--
--- सत्य ये है,
गीत मेरे-
लक्षणा और व्यंजना के
जाल में उलझे पड़े हैं,
अर्थ-भाव-विहीन शब्दों के
भयंकर ज्वाल से झुलसे पड़े हैं !
हे प्रभु !
गीतों को मेरे नवल स्वर दे,
दर्द-पीड़ा-वेदना की
करूण उसमे आह भर दे ।
-- डॉ ० प्रेमांशु भूषण ‘प्रेमिल’