A site featuring original hindi stories and poems

Wednesday, November 5, 2008

प्रार्थना

छंद:
हैं निर्बंध मेरे;
शब्द:
मुक्ताकाश के
उज्जवल सितारे;
भाव:
धरती के धधकते
कोख में जो
खौलता लावा
धरा है,
उसकी सारी
उष्णता और
आँच धारे-
और सागर की
अगम गहरायिओं को
नापते से-
या मलय के
स्रोत की
चिर-खोज में
खोए हुए से-
प्रीत की या
मधुरिमा को,
स्नेह की मृदु
चाँदनी को
अपने ‘पारस’ सी
तिलस्मी छुअन से
नित नए कुंदन सा निखारे ,

मेरी भाषा:
पुंपुरुष सी
शक्तिशाली,
युद्ध के
आह्वान पर
उद्यत - रणातुर
क्षत्रिय के हाथ में
स्थिर खड़ी
वो खड्ग
जो है दामिनी सी चमचमाती;
और सब उपमान मेरे:
साँस लेते,
बोलते-रोते-बिलखते,
मनुज से जीवित,
सूर्य से जागृत,
सुसंस्कृत……

------किंतु वो औरत
जो ख़ुद को
बेच देती,
उसके अन्दर की
प्रबल
जठराग्नि को
क्या पढ़ सके हैं?
या की जो
अंधे की आँखों में
गहन-अंधेरे
दलदल हैं-
उन्हें कुछ भर सके हैं?
और दंगों में
जो वहशत नाचती है,
युद्ध में
शोणित-सुसिंचित
भूमि पर
मरते हुए उस
वीर की विधवा की
ठूँठे पेड़ सी
निर्ल्लज-नंगी मांग में,
औ ‘रेप’ से पहले
बिलखती
यौवना की
आँख में जो
नंगी दहशत
नाचती है-
एक पल छिन
को भी उनकी
क्या व्यथा
ये कह सके हैं?
भूखे बच्चों को
पकाकर जो कहानी
है सुलाती माँ ,
खेतिहर वो
जिसकी सारी फसल
भीषण राक्षसी सी
बाढ़ आकर
खा गयी हो,

वो जो प्रिय के
इंतज़ार में
आज भी
उस पेड़ के
नीचे पड़ी
दिन-रात रहती,
पत्ते गिनती,
कंकडों को बीनती,
आँख पर फिर
हाथ रखकर,
पूर्व से आते हुए
रस्ते को इकटक देखती
हो गई बुढिया ,
और है पगला गयी जो,
एक वो भूखा भिखारी
रोटी जिसके हाथ से
झट छीनकर

गुम हो गया
कुत्ता आवारा,
उनकी पीड़ा-वेदना की
क्या कथा
ये कह सके हैं?
--
--- सत्य ये है,
गीत मेरे-
लक्षणा और व्यंजना के
जाल में उलझे पड़े हैं,
अर्थ-भाव-विहीन शब्दों के
भयंकर ज्वाल से झुलसे पड़े हैं !

हे प्रभु !
गीतों को मेरे नवल स्वर दे,
दर्द-पीड़ा-वेदना की
करूण उसमे आह भर दे ।


-- डॉ ० प्रेमांशु भूषण ‘प्रेमिल’

श्रद्धाँजलि

[ एक मित्र की अकाल मृत्यु पर]

एक जवान-
रंगीन-
शोख़-
चटख-
आशा भरा
मीठा सपना था,
पर क्या पता
ये रंगीनी,
ये शोखी
कितनी पीड़ाओं की
गहरी खाइयाँ
पाटती आती थीं;
क्या पता
तुम्हारी पुतलियों
के सितारे
कितनी काली-
गहरी-
तूफानी-
अँधियारी गलियों का
तम मिटाते
झिलमिलाते थे;
क्या पता
तुम्हारी मिठास ने
कितनी कड़वाहट
कितना विष-
भगवान शंकर की तरह
पी रखा था…

सच है,
सपने तो टूटते हैं
पर उफ़ !
इतना जवान-
इतना कच्चा--?
---बुद्धि हतप्रभ है:
अवाक!
उत्तरहीन!
परन्तु हाय रे विधि:
क्रूर !
अटल !
अगम !
असाध्य !

--- चिता सजी,
मंत्रोच्चार हुआ,
मुखाग्नि दी गई,
लकड़ियाँ सुलगीँ,
लपट पे लपट
आग की उठने लगी,
हवा के चंद
तेज़ थपेड़ोँ के संग
धू-धू कर
दहक उठा शरीर-
सपनों की राख नाचती रही
गर्म हवा में
घिरनी की तरह-
धुआँ बनकर
हवाओं में
बिखर गया वज़ूद-
कण-कण कर
‘पंचतत्व’
वसूलते रहे
अपना- अपना सूद-
रह गई साथ
सिर्फ़ यादों की
तेज, भीषण तपिश:
सूनी आँखों के
रेगिस्तान में
रेत के बवंडर उठाती…

…माँ की
करुण पुकार के साथ,
हम सब भी
मिलाते हैं आवाज़:
आकाशगंगा के उस पार
सितारोँ के साथ
तुम्हारी अनंत यात्रा के लिए
शुभकामनायें दोस्त,
“बेस्ट आफ लक” !!!

-- डॉ ० प्रेमांशु भूषण ‘प्रेमिल’

Monday, November 3, 2008

मात्र एक प्रश्न

"क्या यह समर्पण कर सकोगे ?"

'जिंदगी से खेलते हो
रोज तुम ये जानता हूँ,
और तुम्हारी 'नीति -शक्ति'
की महत्ता मानता हूँ,
कोटि-शत -सहस्त्र प्राणों
पर तुम्हारा क्षत्र भी है,
हस्तलिपि में रंक-जन के
भाग्य का नक्षत्र भी है,
एक भृकुटी तनी हो तो
राष्ट्र में भूचाल सा हो,
और पलती दृष्टि तो फिर
विश्व में संहार सा हो,
साम-दाम-दंड-भेद से
तुम्हारे शस्त्र भी हैं,
राजनीति, कूटनीति
के अमोघ अस्त्र भी हैं,
किंतु क्या तुम लोभ तज कर
राष्ट्रहित में क्षोभ तजकर
मनुज के उत्थान के हित
प्राण अर्पण कर सकोगे?'
--
'क्या यह समर्पण कर सकोगे'

----डॉ ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'

Friday, October 31, 2008

शहंशाह






हवा ने
अपनी जंग खाई-
घरघराती-
आवाज़ में मुझसे कहा:
‘मुझे साँस लेने दो’ ;
मैंने अपने पुराने स्कूटर को
किक मारकर किया स्टार्ट
और उसके नथुनों में
काला धुँआ झोंकता चल दिया ।

उजाले ने
ओस से अपने चेहरे को
साफ कर कहा:
‘मुझे चमकने दो’ ;
मैंने उसके मासूम चेहरे पर
सुलगती चिमनी की
गाढ़ी स्याही पोत दी ।

हरियाली
अपने ऊपर पड़ी
गर्द झाड़कर बोली:
‘मुझे फैलने दो’ ;
मैंने ठीक उसकी
नाक के नीचे
एक फैक्ट्री उगा दी ।

सर झुकाए पेड़ों ने
हाथ जोड़कर विनती की:
‘हमें बढ़ने दो’ ;
मैंने उनके बदन पर
गड़ा दिए
अपनी आरी के नुकीले दांत ।

चिड़िया
अपने डैने फड़फड़ा कर,
चोंच खोलकर गिड़गिड़ाने लगी:
‘मुझे चहकने दो’ ;
मैंने उसकी खुली चोंच में
उडेल दिया खौलता तेज़ाब,
उसके पंख काटकर
बनाया एक ‘आर्ट्पीस’,
और अपने घर की
दीवार पर सजा लिया ।

मेरे हाथ के फेंके
कंकड़ को
अपने गले के नीचे सटककर
नदी बिलखी:
‘मुझे बहने दो’:
मैंने बाँध दी उसके
उश्रृंखल पैरों में बेडियाँ ।

अपने गर्वीले कवच उतार
घुटने के बल बैठ
पहाडों ने निवेदन किया:
‘हम तुम्हारे अडिग प्रहरी,
हमें खड़े रहने दो’ ;
मैंने अपने होठों पर चिपकाई एक विषैली मुस्कान
और उन्हें
डाइनामाइट से उड़ा दिया ।
-------
इस तरह
पेड़-पहाड़-नदी-उजाला-हरियाली-
चिड़िया-हवा के विद्रोह को
कुचलता हुआ
मैं बन गया;
उजाड़-बंजर-नीरव-निर्जला-निस्पंद
मरुभूमि के
इस अंधेरे भूतमहल का
निश्शंक-
निर्विरोध-
सर्वशक्तिमान शहंशाह;
दंभ से हुंकारता,
ध्वन्सवाशेषों को ऊंगलियों से कुरेदता---

---- यहाँ लगे हैं
पहाड़ों की अस्थियों के ढेर,
वहाँ पेड़ की नुची खाल से
अब तक टपक रहा है खून,
इधर पड़े हैं
झुलसे हुए चोंच पंछी के
और उधर कोने में पड़ी हैं
नदी की कटी हुई बेड़ी-डली टांगें---
---अरे ! वो कौन ? उजाला ?
कलमुँहा ! पहचाना नहीं जाता,
और वो देखो !
हवा की आखिरी साँस
कैसे बीच में ही अटक गयी---

---- ये सब
नायाब निशानियाँ
मेरी अप्रतिम विजय की,
देखकर नाच उठा मन,
अपने शोणित-सिक्त
विषदंत निपोरता
हँस पड़ा मैं,
और धरती-गगन में
गूँज उठा
मेरा विजय अट्टहास-
हा-हा-हा-हा-……….


--- डॉ ० प्रेमांशु भूषण ‘प्रेमिल’

गणतंत्र के चूहे

राजतंत्र में
सुना था ऐसा-
लोगों को
लूटा जाता था,
नोंचा,
मारा-पीटा जाता,
बात-बात पर-
बिना बात पर-
कोड़ों की बरसात
हुआ करती थी लेकिन;
यारों हम तो
वैसे जन हैं,
लोकतंत्र
या राजतंत्र हो-
सैन्यतंत्र
या फलांतंत्र हो-
जो जाते हैं
हर दम दूहे,
नई दवाई
जिन्हें खिलाओ
काट-पीट कर,
छील-छाल कर,
चाहे जो भी
‘टेस्ट’ करो तुम ,
कभी नहीं
कुछ कह सकते जो
भले चुभाओ
मोटे सूए-
हम लैबरोटरी के चूहे !!


--डॉ ० प्रेमांशु भूषण ‘प्रेमिल’

ब्लैक - होल

अलौकिक तेज़ से सुसज्जित,
प्रकाशपुंज दिनमान,
बाहर से प्रतीत होता ज्यों
सतत अखंडित प्रभावान;

क्रोड़ में उसकी जो झाँका,
चौंक पड़ा विज्ञान !
दिखा क्या ?
-- गहन, निविड़, प्रकाश-अभेद्य
तिमिरान्ध !

क्या अचंभा !
कोख में है
अग्नि के पलता अँधेरा,
और ये विज्ञान कहता-
समय के संग
ये अँधेरा
फैलकर
सम्पूर्ण दिनकर को निगल लेगा,
बनेगा वो
एक अँधा ‘ब्लैक –होल ’ ;
जायेगी प्रकाश-सत्ता डोल ,
उस तिमिर में
डूब जायेगा प्रभाकर-
जिस तिमिर की शक्ति इतनी,
रौशनी की इक किरण भी
उसके अंतस से निकल ना आ सकेगी !

----- इसमे तो फिर अनगिनत
सदियाँ लगेंगी,
किंतु मैं तो
देखता हूँ-
रोज कितने सूर्य,
कितने ही सितारे,
अपने अंधेरों में
खोते बन रहे हैं
‘ब्लैक-होल’ !
कब्र पर उनके
अँधेरा
नाम की तख्ती लगाता
मुस्कुराता---

----- कल जो मेरा
प्रेम-सूरज
आखिरी दम भर
लहककर
बुझ गया था,
बन गया तब
एक मैं भी ‘ब्लैक-होल’;
अंधेरे ने
ठोंक डाली
मेरे माथे
एक तख्ती----
---- और उसपे नाम ‘तेरा’ जड़ गया वो

------
---डॉ ० प्रेमांशु भूषण ‘प्रेमिल’

बैसाखी

मेज की एक टाँग के
नीचे से सड़ जाने पर,
लगानी पड़ती है उसके नीचे
कोई टेक, कोई अटकन:
(आदर्शों की छोटी टाँग को
वय्वाहरिकता की अटकन दे दो । )

कमीज़ के बाजू की कोहनी
के दरक कर फट जाने पर,
या पैंट के घिस जाने पर
लगानी पड़ती है उनपर
कोई चेपी, कोई पैबंद:
(ईमानदारी की फटी पैंट पर
रुपयों की पैबंद तो लगाने दो । )

दवाई की गोली की कड़वाहट से
जीभ को बचाने के लिए
लगानी पड़ती है उसके ऊपर
शक्कर की मीठी-मीठी
कोई सतह, कोई परत:
(सच्चाई की कड़वाहट पर
झूठ का मुलम्मा तो चढाने दो । )

[आख़िर लंगड़ों को,
कम से कम
बैसाखी का हक़ तो है ? ]

---डॉ ० प्रेमांशु भूषण ‘प्रेमिल’

Thursday, October 30, 2008

दादाजी की छड़ी

कमरे के अकेले कोने में
खड़ी रहती,
चुपचाप,
समय अपना मकड़जाल
बुनता
उसके चारों ओर,
देखती मुझे
टुक-टुक;
जब झूठ बोलकर मेरी आवाज़
शर्मा जाती,
देखती एकटक;
जब मैं रोटी की दौड़ से
थककर
निढाल
कुर्सी में पड़ जाता-
जब मैं खुश होता-
जब मैं गाता-
रोता-
किसी को ठगता-
या स्वयं ठगा जाता-
सुबह सवेरे जब
धूप की गिलहरी
मेरे बिस्तर पर फिसलती-
या जब रात
मेरी साँसों में सुबकती-
हर दिन-रात,
हर पल-छिन-
हर दम-
एक टक-
टुक-टुक-
चुप-चाप-
निर्विकार-
लगातार-
अपलक-
निहारती रहती
दादाजी की
टेढ़ी-मेढ़ी
घुन खाई छड़ी,
उनके न होने का
एहसास कराती,
हर रोज कुछ और
बुढाती छड़ी !


--डा ० प्रेमांशु भूषण ‘प्रेमिल’

मेरा कवि मित्र

विचारों के करघे पर
शब्दों के धागे
बुनते-उधेड़ते,
अक्सर मैंने देखा है,
वो एक साया
जो मेरे साथ खड़ा-
होठों पे लिए एक मुसलसल मुस्कान-
धागों में पड़ी
गाँठों को सुलझाता है ।

आवाज़ मेरी
जब भी हो के ग़मगीन,
आँसू के दरिया के किनारे बैठी,
गीतों की कागज़ी कश्तियाँ बहाती है,
मेरी आवाज़ के कानों में वो
मीठी आवाज़ में मद्धम —मद्धम,
कोई बिसरी हुई सी
नज़्म गुनगुनाता है ।

नन्हे बच्चे गीतों के जब,
मेरे दिल के अंधेरों से
घबरा के सहम जाते हैं,
थाम के हाथ,
प्यार से थपथपा के,
दे के दिलासा उनको,
वो एक छोटी सी फिर
शमा जला लाता है ।

और जब
सुनके लोग
उसकी तराशी कविता
मुझको शाबाशी देते,
बैठकर दूर
आखिरी पंक्ति में
वो भी बजाता ताली-
बड़े ही गर्व से मुस्काता है ।

वो मेरा दोस्त:
कवि-गीतकार-शायर,
बड़ा अज़ीज़ है मुझको,
क्योंकि मैं
जब भी निपट-अकेला
अपनी कलम लिए
उदास होता हूँ,
बैठकर मेरे साथ,
उमेंठकर उदासी के कान
मेरे कलम की नोंक पर वो
खुशी का कोई गीत सजा जाता है !

-- डॉ ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'

Wednesday, October 29, 2008

प्रतिबिम्ब

शब्दार्थ के अरण्य में
भाव- भिक्षुक लुप्त-
चेतना सुसुप्त -
अभिप्राय रचना का- अस्पष्ट :
अलंकरण आयास में !

पिघलते तारकोल से
काले- चिपचिपे दलदल में-
लिजलिजे कीड़ों से रेंगते
विस्मृत कर समस्त सद्-गुण
भीड़ के साथ भागती:
चीटियों का समूह !

मौलिकता की कब्र के
सिरहाने खड़ा -
क्रंदन करता पाषाण ,
अपने अस्तित्व से विलग-
दुम हिलाते कुत्ते !

लाल फूलों वाले पेड़ से
आश्रय माँगते,
गोबर की गंध में उगे
कुकुरमुत्ते !

अपने ही घर की
नींव उखाड़ते पागल ---
सचमुच !
"प्रतिबिम्ब" बदल गए हैं !!!

--- डा ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'

Sunday, October 19, 2008

याद

याद
रात भर समंदर की लहरें
साहिल की चट्टानों से
सर टकरा-टकरा कर
लहू-लुहान होती रहीं,
झाग की खूनी धार
साहिल की रेत को
रात भर सींचती रही,
सड़क के किनारे
चुपचाप खड़े
गुलमोहर की तन्हा शाखें
तमाम रात सहमती हुई
सिसकती रहीं,
कल रातभर न जाने क्यों
बेतहाशा तारे टूटते रहे,
पोखरे में सिमटे कमल पर
चाँदनी बरसती रही,
न जाने कौन सी थी बात-
क्या उसको हुआ था-
फूट-फूट कर एक कोयल
रात भर रोती रही,
दूर कोई दर्द भरे गीत गाता रहा-
एक पतंगा रौशनी पर मंडराता रहा-
हवा के संग पत्तियाँ सरसराती रहीं-
रात भर -'रात' मेरे बिस्तर की
तिरछी सिलवटों में मुँह छुपाती रही-
------
रात भर मैं नींद को बुलाता रहा,
रात भर याद तुम्हारी आती रही।
---
---डा ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'

अंतर्घात


आग है, आँधी है या बवंडर है
क्या कहूँ क्या इस जेहन के अन्दर है ।

जिसमे ख्वाब भी छुप-छुप के साँस लेते हैं,
ऐसा चुपचाप सा सोया हुआ ये खंडहर है ।

जिसकी मौजों का ख़ुद उससे कोई रिश्ता ही नहीं,
कितनी तन्हाई में डूबा हुआ समंदर है।

देखा उम्मीद से जिस भी किसी सूरज की तरफ़ ,
बुझ गया रात को ये मंजर है ।

हर तरफ़ राह में शिकारी अंधेरे,
चाँद के हाथ में भी खंजर है।


----डा ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'

Tuesday, September 16, 2008

पापा के लिए

पापा के लिए
माली !
कड़कते घाम में
तुम्हारा
अविश्वसनीय -
अतुल-
अथक श्रम :
वो धौंकती शिरायें,
छलछलाता पसीना,
फूलती साँसे,
शिथिल पेशियाँ ........
क्या सिर्फ़ इसलिए
कि जब फूल महमहाता है-
खिलखिलाता है-
भँवरों को ललचाता है -
हवा के किल्लोल से
लचक-लचक जाता है;
तब तुम्हारी
धुँधलाती बुढाती आँखें ;
आँखें नहीं रहतीं -
स्फटिक हो जाती हैं?
.......
कौन करेगा इस त्याग की तुलना?
कर्ण या दधीचि ?

----डॉ ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'

Sunday, September 7, 2008

अफ़सोस




अफ़सोस


तेरी आँखों में लिखी थी

दास्ताँ मैं पढ़ न पाया ,

तेरे होठों की खुली दहलीज़

तक मैं चढ़ न पाया ,

चंद क़दमों पे खड़ी थी

आरज़ू बाँहें पसारे ,

पर कदम दो चार भी मैं

राह के वो बढ़ न पाया !


जिसकी सूरत आँख में थी

जिसकी खुशबू साँस में थी,

जिसकी शोखी जिंदगी थी

बात जिसकी सादगी थी,

जिसे छूकर रूह महकी

संदली सी उसकी काया,

किंतु अपने हाथ से मैं

वही मूरत गढ़ न पाया !


दर्द के बादल घनेरे

जिससे सारे छँट गए थे ,

जिंदगी के स्याह पन्ने

जिससे रौशन हो गए थे,

उसकी चंचल सी हँसी से

हर्फ़ सारे रंग गए थे,

जो बचे थे चंद हिस्से

उसे भी मैं रंग न पाया !


-----डॉ ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'

Saturday, September 6, 2008

कृतघ्न


कृतघ्न


हमने तुम्हे रचा

आसरा दिया -

मंदिरों में,

पूजा की

फूल चढाये

तुम पर विश्वास किया

अपना सर्वस्व दिया ----


तुमने हमें क्या दिया?

---

अपने ही नाम पर

भाई-भाई बाँट दिए-

रक्त पिया

नर-बलि ली !!

---

रे कृतघ्न !!

भूलता है !

हम हैं-

तो तू है

और तेरा ये मान दान

वरना तू है ही क्या ?

मिट्टी की मूरत भर !!


----- डॉ ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'

Friday, August 29, 2008

मनुष्य

मनुष्य


म्लान नयन, कम्पित बदन
सम्मुख निजन - खंडित भवन
दिशा - रहित रात्रि सघन
मेघ-मंडित गहन गगन
क्षुधा भीषण, त्रास अमित
मार्ग भ्रमित, श्रांत पथिक ।

पंक-गर्भित पग प्रकम्पित
रुग्ण काया, श्वांस लंबित
अथक वृष्टि, पवन विचलित
क्षण-क्षण में पुनः पतित
दामिनि दमकाए तड़ित
क्लांत ह्रदय, श्रांत पथिक ।

गहन -भीषण वन अनंतर
मार्ग मधुमय, दृष्टि उज्जवल
प्रलय के उपरांत कण-कण
सृष्टि नित प्रारम्भ प्रति पल
अजय इच्छा, दृढ़ प्रतिज्ञा
एक मात्र सिद्धांत पथिक

सदा विजयी मनुपुत्र
है वो श्रांत पथिक !!

---------डॉ ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'

Thursday, August 14, 2008

प्रसव - पीड़ा

प्रसव - पीड़ा





एक भीषण , प्रबल आँधी

मेरे इस मस्तिष्क में

फिर चल पड़ी है ,

विचारों की हवा पगली

बदहवास सी साँय - साँय कर

भाग रही है ,

उड़ गए हैं छत

पुरानी धारणाओं

के भवन के ,

क्षत -विक्षत शव

भावनाओं के

टंगे हैं

हर दिशा में ,

वृक्ष घटनाओं के सारे

झूम उठे हैं

थपेडों में हवा के --

कहीं अर्राकर

कड़क कर

टूटती है

कोई टहनी ,

और कितने

वृक्ष जड़ से ही

उखड़कर

सोच की राहों पर

धम्म से गिर पड़े हैं

आड़े-तिरछे !

कई तस्वीरों से पत्ते

अपनी भोगी ज़िन्दगी के

उठते-गिरते-घूमते-

फिर भागते से

इन हवाओं के भंवर में

द्रुत -गति से

हैं पड़े

चकरा रहे जो -

उड़ रही है

धूल शब्दों की

नयन में चुभ रही है ,

लग रहा है

कोई कविता

फिर जेहन में उग रही है !



......... डा ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'

Wednesday, August 13, 2008

कैफ़ियत

कैफ़ियत




जज्बात की लौ से

आग चुराकर

शब्द जब

जुगनुओं से जगमगाने लगते हैं,

मस्तिषक की

आवेशित कोशिकाओं में

जब तारे फूटने लगते हैं,

हाथ

जब अनायास बढ़ते हैं,

उँगलियों में थमी कलम

जब ज्वार सी

मचलने को होती है,

कविता बहने को होती है--

तब-

न जाने कब -

न जाने कैसे -

तुम्हारी सोच

मेरे शब्दों के

नर्म काँधों पे

चुपके से

आकर बैठ जाती है ,

तेरी सूरत

हर तारे में

अपनी परछाईं छोड़ देतो है,

तेरी हँसी

कविता की धार में

नैया सी इठलाती है ,

तेरी खुशबू

भोर की नदी पर

फिसलते सोने सी

हर जज्बे में समा जाती है ,

और

इस तरह -

कविता जो आगाज़ में

मेरी कविता होती है,

अंजाम तक

आते - आते

तुम्हारी कविता

बन जाती है ----



ये मुझे क्या हो रहा है

क्यों न ख़ुद को थाम लूँ ,

सोचता हूँ आज क्या

इस कैफ़ियत को नाम दूँ !



....डा ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'

तुम

तुम




तुम्हे विस्मृत करुँ किस भाँति मैं !



तुम जो मेरी धमनियों में प्रवहमय हो ,

तुम जो मेरी काया में गतिमय ह्रदय हो ,

तुम जो मेरे श्वांस-गति की मधुर लय हो ,

तुम्हारे बिन जिऊँ किस भाँति मैं ,

तुम्हे विस्मृत करुँ किस भाँति मैं !



तुम मेरे छंदों की अस्फुट चेतना हो ,

तुम मेरे शब्दों में चित्रित वेदना हो ,

तुम मेरे गीतों में मुखरित कल्पना हो ,

तुम्हारे बिन रचूँ किस भाँति मैं ,

तुम्हे विस्मृत करुँ किस भाँति मैं !



तुम मेरे पार्थिव बदन की शायिका हो ,

तुम मेरे हर पाप की परिमार्जिका हो ,

तुम मेरे निर्वाण की भी वाहिका हो ,

तुम्हारे बिन मरूँ किस भाँति मैं ,

तुम्हे विस्मृत करुँ किस भाँति मैं !



......डा ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'

Tuesday, August 12, 2008

रात भर

रात भर


हवा के मंद -मंद झोंकों में


मचलती घनी काली डोरों को ,


तेरे चेहरे से किया था


जो किनारा मैंने-


हाँ! तेरी जुल्फ़ को फिर खूब सँवारा मैंने ।

आंखों से तेरे

शोख इशारे फिसले ,

थिरकती पलकों की

फ़िर ओट में आकर मचले,

अपनी प्यासी

पुरनूर निगाहों से तब

था तेरी आंखों को फिर खूब निहारा मैंने ।



आई जो तेरे सुर्ख


लबों पर जुम्बिश ,


रगों में खून की


सरगोशियाँ महसूस हुई,


तेरी पेशानी पे जब


मोती सी चमकी शबनम-


अपनी बाहों का दिया तुमको सहारा मैंने ,


हाँ! तेरी जुल्फ़ को फिर खूब सँवारा मैंने ।




तेरे जिस्म की


चंदन सी महकती मखमल,


मेरी आगोश में


एक उम्र तक सुलगती रही,


थक गई तुम


तो सुलाया था फिर -


रात भर, बाहों में एक शोख़ सितारा मैंने,


हाँ! तेरी जुल्फ़ को फिर खूब सँवारा मैंने ।


----डा ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'


अनसुनी आवाजें


अनसुनी आवाजें


साँस के धागों को मैं भी मुसलसल बुनता रहा ,


और गिरहें साल की उस डोर में गिनता रहा ।


धडकनों से जोड़कर , दिन की दहकती ईंट को


याद से ऊँची कोई दीवार मैं चुनता रहा ।


रो सके ना जो कभी , कमबख्त हँसते ही रहे


रात भर उन आँसुओं की चीख मैं सुनता रहा ।


हर अकेली रात सपनों की नसें कटा किया ,


पाक दामन चाँदनी का खून में सनता रहा ।

वक्त की आँधी से तिनके दर्द के कुछ चुन लिए ,

और टूटे इश्क का यूँ आशियाँ बनता रहा ।

साँस के धागों को मैं भी मुसलसल बुनता रहा ,


और गिरहें साल की उस डोर में गिनता रहा ।


---- डा ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'

Friday, August 8, 2008

उस रात

उस रात

-------------

डॉ प्रेमांशु भूषण "प्रेमिल"



" तुम प्यार को समझ नहीं सकी प्रतिमा !"--- मैंने कहना चाहा था । शब्द मेरे मुँह से निकले तो थे, पर हर्फ़ - हर्फ़ बर्फ बन कर नीचे गिरे और बिखर गए । सिहरन भरी ठंढ कार की हवा में फैल गई। मेरे लबों की जुम्बिश अंधेरे में उसे नहीं दिखी होगी , जानता था मैं--- और जमे हुए अल्फाजों के टूटने की आवाज़ उस तक नहीं पहुँची होगी, मानना चाहता था मैं । नीचे सड़क टायरों को खरोंचती हुई भाग रही थी.........



'हेल्लो प्रेम ! मीट माई वाईफ .. प्रतिमा ....; प्रतिमा, दिस इज प्रेम .........माई बॉस ..."

अरुण ने आगे भी कुछ कहा था , पर मेरे कानों में शब्दों का एक सैलाब उमड़ आया था । मेरी आंखों ने उसे देखा था .... यंत्रवत मेरे हाथ जुड़ गए थे और मेरे मुहं से अस्फुट से शब्द निकले थे.."नाईस टू मीट यू प्र.....?" उसका नाम पूरा नहीं ले पाया था मैं । उसका नाम? वो नाम जिसे लिए बिना मेरे दिन-रात नहीं कटते थे? वो नाम जो मेरी जिंदगी का सबसे अहम् नाम था ? वो नाम जो मेरी हर धड़कन, हर साँस पुकारती थी ? वो नाम जिसे मेरी आत्मा ने कभी ओंकार की पवित्रता से जपा था ? वो नाम नहीं ले सका था मैं ? वो नाम? .......



"एक्सक्यूज मी !" बोलकर मैं खिड़की के पास आ गया था.... बड़ी घुटन सी महसूस हुई थी.... कितनी अजीब बात थी ! मेरे हाथों ने न जाने कब एक सिगरेट निकाल कर सुलगाई थी...उस पल मुझे एहसास हुआ... कितनी ज़रूरत थी मुझे अपने फेफड़ों का दम घोंटने की ! अन्दर उफनते ज़हर को आखिर ज़हर ही काटता है.......



"तुमने सिगरेट पीनी कब शुरू कर दी?"

मुझे मुड़कर देखने की जरूरत नहीं थी । उस आवाज की ऊंची चोटियों और गहरी वादियों से न जाने कितनी दफा गुजरा था मैं । उसकी एक- एक घाटी, एक- एक पगडण्डी से वाकिफ था मैं ...... जिसके हर मोड़ पर मेरी कोई याद अब तक ठिठकी खड़ी थी......

"जवाब नहीं दिया तुमने" , फिर पूछा था उसने !

.......

"मैं तो ये तक नहीं जानता की मैं अबतक साँस क्यों ले रहा हूँ। "

"......"

"......"

दीवार पर टंगी घड़ी से समय लम्हा-लम्हा पिघल कर रिसता रहा... एक युग मानों धार में बह निकला.... पर उसने कुछ कहा नहीं था । क्यों नहीं कहा....? कुछ तो कहो....! ठीक है.... मैं ही...

"तुम्हारी पत्नी नहीं आई ?" उसने पूछा था ।

मैंने मुड़कर उसे देखा- क्या था उसकी आँखों में ? क्या सच-मुच तुम जानना चाहती हो ? पूछने वाला ही था कि उँगलियों में जलन महसूस हुई ..... । सिगरेट ने बुझते - बुझते मेरी उँगलियों पे एक धधकता हुआ चुम्बन अंकित कर दिया था। ... आख़िर हर महबूबा की यही आदत होती है: जब तक साथ हो सुलगाती है , और जब जाती है तो जला जाती है....! सोचकर एक वितृष्णा भरी मुस्कान पल भर के लिए मेरे होठों पे तैर गई थी.....

"क्या हुआ ? उंगली जल गई ? दिखाओ मुझे..."

......

"मैंने शादी नही की" , मैंने अपने हाथ जेब में डाल लिए थे । ... क्या जानती नहीं थी तुम? ... फिर क्यों पूछती हो ? क्या तुम....

".....पर क्यों ?"

.....फिर क्यों? कितने "क्यों" होते हैं तुम्हारे पास?..... हमेशा तुम ऐसे ही सवालों की झडी लगा देती थी .... और मैं हँस- हँस कर उनके उत्तर देता था.... मुझे अब तक याद है- पर तुम्हे कहाँ याद होगा....

"आज तुम्हारे इस क्यों का उत्तर नहीं दे पाऊँगा । "

उसकी आँखे मेरी आँखों में न जाने कौन सा उत्तर ढूंढ रही थीं ... उसके हाथ में थमा स्टरर ग्लास में घूमता जा रहा था.....

"तुम तो वोदका पी रही होगी?"

"हाँ! और तुम... रम...?" वो वापस लौटी थी ।

"नहीं । मैंने रम पीना छोड़ दिया । आजकल व्हिस्की पीता हूँ । "

........

"काफी बदल चुके हो । "

" जब इन्सान अन्दर के प्यार को मिटा नहीं पाता , भुला नहीं पाता -तो वो बदलाव डिस्प्लेस होकर उसके आचरण, उसके बर्ताव मैं झलकने लगता है", कहना था मुझे... पर तभी अरुण वहाँ आ गया था ।

"हे प्रेम !... सो गुड ! यु लाईक ईच अदर्स कंपनी !.... अभी यार्ड से फ़ोन आया था । वहां किसी की लाश मिली है... पुलिस पहुँच चुकी है.... मुझे तो वहां जाना होगा । तुम लोग पार्टी एन्जॉय करो । मैं सुबह प्रतिमा को यहाँ से लेता जाऊँगा.... सॉरी टू बादर यू । सी यू इन मोर्निंग डार्लिंग। बाई..."

"पर-" वो कुछ कहना चाहती थी । पर तब तक अरुण वहां से निकल चुका था ।

समय की धारा भी हमें कैसे अचानक साथ समेट लाती है। कितना पास था मैं उसके। बिल्कुल करीब। इतना करीब की हाथ बढाकर मैं उसके साँसों की भाषा पढ़ सकता था।

.......

"बड़ी घुटन सी है यहाँ । लेट्स गो फॉर अ ड्राइव " उसकी आवाज़ में एक अजीब सी दृढ़ता थी- मानों उसने अन्दर ही अन्दर कोई फ़ैसला कर लिया था....

.... इंकार नहीं कर पाया था मैं। वैसे भी कहाँ कभी उसकी बातों को ठुकरा पाया था.... कहाँ कुछ कह पाया था मैं....... तब भी जब उसने आकर कहा था: "प्रेम! मेरी शादी तय हो गई है.....प्लीज़ समझने की कोशिश करो...... देखो ! मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ... पर पापा नहीं माने.... वो कहते हैं..... मैं मजबूर हूँ.... तुम समझ रहे हो न...प्रेम! प्लीज़...."

...क्या समझ रहा था मैं? आख़िर क्या था समझने को ? तुम नहीं छोड़ पाओगी वो सब... तुम्हारे पापा... और मेरा क्या....तुम.... तुम क्यों नहीं समझती .... कितना कुछ कहना चाहता था मैं..... पर कुछ भी कहाँ कह पाया था मैं....

"...पापा कहते हैं अरुण बहुत अच्छे हैं.... काफी अच्छी नौकरी है..."

"और मैं... और तुम... आज बेकार हूँ ... पर क्या हमेशा.... क्या तुम्हे भी मुझ पर यकीन नहीं.... कितना कुछ कहना चाहता था मैं... पर कुछ भी कहाँ कह पाया था मैं....

"प्रेम! प्लीज़ मुझे माफ़ कर दो !.... आई नो यू विल अंडरस्टैन्ड ....."

.... बट डिड आई ? क्या मैं समझ सका था? और आखिर क्या समझना था मुझे.... और क्या मैं कुछ भी समझना चाहता था....मैं तो कहना चाहता था.... कितना सारा कुछ... मैं चाहता था.... उसे अपनी बाँहों में भर कर भाग जाना चाहता था... दूर .... अगम पहाडियों में ..... गुम हो जाना चाहता था... और क्या-क्या चाहता था... पर.... कुछ भी तो नहीं कह पाया था मैं....

......
"प्रेम ! ये मेरी शादी का कार्ड है। आना ज़रूर। आओगे ना.....?"
.....उफ़! ये कैसी अग्नि परीक्षा थी?.... मैंने आँखें बंद की और उसकी हथेलियों को उठा कर चूम लिया। बस एक पल को लगा जैसे सब कुछ ठीक हो जायेगा । पर न जाने कहाँ से दो बूँद पलकों की ओट से टपकने को आ गए थे। मैं वहाँ से चल पड़ा था। चंद कदम दूर जा कर मैं पीछे मुड़ा था .....
"माफ़ करना मुझे प्रतिमा। तुम्हारी शादी पर नहीं आ सकूँगा। मेरे पास अब तुम्हे देने के लिए कोई उपहार नहीं है। और मैं वहाँ से चला आया था। .....
" गाड़ी तुम ड्राइव करो प्लीज़। "
....अगर वो ना भी कहती तो - आदतन - गाड़ी मैं ही चलाता । कॉलेज के दिनों में उसकी गाड़ी मैं ही ड्राइव करता था। मेरे दोस्त मुझे ड्राईवर कह कर चिढाते थे। ....
" बाहर वाली सड़क पर ले लो। खाली होगी सड़क......"
"तुम्हे कब से खाली सड़कें अच्छी लगने लगीं?"
चुप रह गई थी वो।

कार के पहिये सड़क को रौंदते जा रहे थे। किनारे के पेड़ हमसे दूर भागे जा रहे थे । ठण्ड काफी थी बाहर। सड़क बिल्कुल खाली थी। खामोशी बहार भी थी और कार के अन्दर भी…

"पहले तो हम साथ इतने खामोश नहीं होते थे?" पूछा था उसने।

"पहले हम बहुत कुछ नहीं होते थे। ... और वैसे भी पुरानी बातें पुराने ज़ख्मों की तरह होती हैं... जितनी कुरेदी जाएँ उतनी ही तकलीफ होती है। "

बाहर तारों के झिलमिलाने को छोड़कर कोई आवाज़ नहीं थी। बाहर धरती घने, ऊँचे पेड़ों की शक्ल में अपने हाथ बढ़ा कर चाँद को चूमना चाहती थी। बायीं तरफ़ सड़क एक पगडण्डी बनकर घने पेड़ों में किसी अनजान मंज़िल की तरफ़ भाग रही थी….

“गाड़ी को बायीं तरफ़ कच्ची सड़क पर उतार लो प्रेम। मैंने गाड़ी कच्ची सड़क पर उतार दी। बिना कुछ सोचे। जैसे उसकी बातें मैं हमेशा मानता था।

“बस रोक लो।” गाड़ी रोक दी थी मैंने।

चारों तरफ़ पेड़ चौकीदारों की तरह चौकस खड़े थे। चाँद शीशम की दो डालों में बिंध गया था। उसकी आँखों से आँसूं टपक रहे थे.... सारा बियाबान उस दूधिया धार में डूबा था....

“प्रेम ! अपनी आँखें बंद करो। जब मैं कहूँ तभी आँखें खोलना..”

मैंने आँखें बंद कर ली थी। सोचना चाह रहा था मैं..... पर कुछ भी कहाँ सोच पाया था मैं.... एक विचित्र सी मानसिक स्तिथि में था मैं... उसकी चूडियों के खनकने की आवाज़ उस नीरव निस्तब्धता को चीर रही थी....

“प्रेम...” पुकारा था उसने। कैसी ज्वाला थी उस आवाज़ में....मेरी साँसें दहक उठी थी.... गला खुश्क हो आया था.... आँखें खोल ली थी मैंने।

बाहर चाँदनी जम कर ठोस हो चुकी थी । अन्दर चाँदनी में लिपटी निर्वस्त्रा प्रतिमा द्रवीभूत होकर बह निकली थी । उस बहाव में मैं कब बह निकला -- कब हमारे होंठ --सदियों से प्यासे होंठ -- लिपट गए-- मानों उसके लबों से मैं उसकी आत्मा को पी लेना चाहता था-- आत्मसात कर लेना चाहता था……. पता ही नहीं चला।

उस बहाव में मैं कहाँ तक बह जाता पता नहीं । कि तभी मुझे अस्फुट से शब्द सुनाई दिए:

“ये मेरा प्रायश्चित है प्रेम… मुझे माफ़ कर देना…”

…….. मेरे होंठ जहाँ के तहां थम गए । लगा जैसे उस बहाव में एक ऐसा तेज ज्वार उठा जिसने मुझे किनारे की रेत पर ला फेंका….

तो क्या तुम?.... प्रायश्चित…? …? मेरे मस्तिषक में प्रश्नों का एक ज़लज़ला सा आया था… मेरे बाहुपाश ने उसे आजाद कर दिया था….

“क्या हुआ…?” उसे जैसे होश आया….

“….”

“प्रेम !...प्लीज़…”

“कपड़े पहन लो प्रतिमा .”

“प्रेम… मैं…”

“कपड़े पहन लो प्रतिमा ।” मैंने दुहराया था .

.............

उसने कपड़े पहन लिए थे .

........

“ प्रतिमा ! सारी जिंदगी मैं तुम्हारा प्यार पाने को तरसता रहा । एक-एक पल धधकती याद में जलाया है ख़ुद को । ... आख़िर क्या चाहा था मैंने?... क्या माँगा था मैंने?... तुम्हारा प्यार... तुम्हारा विश्वास.... तुम्हारा साथ.... सिर्फ़ तुम्हारा जिस्म तो नहीं?....मेरी प्यास इतनी कम नहीं है.... मुझे तुम चाहिए... सिर्फ़ तुम... लेकिन संपूर्ण तुम !!..... तुम्हारे प्यार का ये एक कतरा भर मेरी प्यास नहीं बुझा पायेगा.... और तुम्हारा त्याग, तुम्हारी दया तो बिल्कुल भी नहीं...

“... कम से कम मुझे मेरी नज़रों में तो मत गिराओ... मुझे तुम्हारी याद में सारी उम्र जलना स्वीकार है, पर माफ़ करना प्रतिमा... तुम्हारा ये अर्पण मुझे स्वीकार नहीं.....”

.......

कितना कुछ कह गया था मैं? पता नहीं कैसे?.... शीशम की टहनियों में उलझा चाँद पेड़ के हाथों से छिटक कर ऊपर निकल आया था.....

......

" तुम प्यार को समझ नहीं सकी प्रतिमा !"--- मैंने कहना चाहा था । शब्द मेरे मुँह से निकले तो थे, पर हर्फ़ - हर्फ़ बर्फ बन कर नीचे गिरे और बिखर गए.........






रात से प्रात तक

रात से प्रात तक

-------------------
शाम को
रोशनी जो
सूरज से
शर्मा के रूठ जाती है ,
बूँद समय की
मेरी हथेलियों से
टकरा के
फूट जाती है,
चाँदनी काँच सी
गिर चाँद से
मेरे छत पे
टूट जाती है,
नींद से बोझिल
पलकों की
कैद से आख़िर
ओस सपनों की
छूट जाती है -
और
मस्त जवानी
सितारों की
फिर रात लूट
जाती है .........
....................
तड़के सुबह
चुनता हूँ मैं,
अपने बिस्तर
पर लुढ़के सपने
और छत पर बिखरे
चाँदनी के टुकड़े,
बीते समय की
बूँदों से
नम हाथों से
और
लुटे सितारों ने
जो
खुदकुशी की थी
कल रात ,
उनके खून से
पूरब के
आकाश का
अख़बार रंगा जाता है,
देखो !
फिर आज भी
सूरज कोई
दिन की
सूली पे
टंगा जाता है !!


------------डा ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'

समर्पण



समर्पण


.....................



आज पथ पर मैं खड़ा हूँ - खोल बाहें -


कोई मुझ सम्पूर्ण को स्वीकार कर ले ।







रूप मेरा अप्रतिम मनहर नहीं है,


मेरी चितवन है नही जग से निराली,


काया मेरी इन्द्र सी अक्षत भी नहीं ,


जग से बढ़ कर हूँ नहीं मैं शक्तिशाली ,


किंतु दृढ़ संकल्प मैंने ये किया है,


प्रीत मेरी उसे होगी सब समर्पित ,


मुझे मेरी सभी त्रुटियों से अलंकृत


खोल जो उर-द्वार अंगीकार कर ले -


आज पथ पर मैं खड़ा हूँ - खोल बाहें -
कोई मुझ सम्पूर्ण को स्वीकार कर ले ।










शब्द बौने, निम्न भाषा ,छंद विकृत


और ओछी साज -सज्जा से लदी है,


दूर की कौडी नहीं मैं ढूंढ पाया


और उथली कल्पनाओं की नदी है,


किंतु दृढ़ संकल्प मेरा आज ये है


गीत सरे उस चरण पर वार दूँगा,


चीर कर जो छद्म पिंगल आवरण को ,


कवि हृदय की भावना से प्यार कर ले-


आज पथ पर मैं खड़ा हूँ - खोल बाहें -
कोई मुझ सम्पूर्ण को स्वीकार कर ले ।




------------डा ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'

Welcome

आपका स्वागत है । यहाँ पर आपको नई-नई हिन्दी कवितायेँ और कहानियाँ मिलेंगी । आपका सृजनात्मक सुझाव हमेशा हमें अच्छी रचनायें लिखने को प्रेरित करेंगी ।