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Friday, October 31, 2008

शहंशाह






हवा ने
अपनी जंग खाई-
घरघराती-
आवाज़ में मुझसे कहा:
‘मुझे साँस लेने दो’ ;
मैंने अपने पुराने स्कूटर को
किक मारकर किया स्टार्ट
और उसके नथुनों में
काला धुँआ झोंकता चल दिया ।

उजाले ने
ओस से अपने चेहरे को
साफ कर कहा:
‘मुझे चमकने दो’ ;
मैंने उसके मासूम चेहरे पर
सुलगती चिमनी की
गाढ़ी स्याही पोत दी ।

हरियाली
अपने ऊपर पड़ी
गर्द झाड़कर बोली:
‘मुझे फैलने दो’ ;
मैंने ठीक उसकी
नाक के नीचे
एक फैक्ट्री उगा दी ।

सर झुकाए पेड़ों ने
हाथ जोड़कर विनती की:
‘हमें बढ़ने दो’ ;
मैंने उनके बदन पर
गड़ा दिए
अपनी आरी के नुकीले दांत ।

चिड़िया
अपने डैने फड़फड़ा कर,
चोंच खोलकर गिड़गिड़ाने लगी:
‘मुझे चहकने दो’ ;
मैंने उसकी खुली चोंच में
उडेल दिया खौलता तेज़ाब,
उसके पंख काटकर
बनाया एक ‘आर्ट्पीस’,
और अपने घर की
दीवार पर सजा लिया ।

मेरे हाथ के फेंके
कंकड़ को
अपने गले के नीचे सटककर
नदी बिलखी:
‘मुझे बहने दो’:
मैंने बाँध दी उसके
उश्रृंखल पैरों में बेडियाँ ।

अपने गर्वीले कवच उतार
घुटने के बल बैठ
पहाडों ने निवेदन किया:
‘हम तुम्हारे अडिग प्रहरी,
हमें खड़े रहने दो’ ;
मैंने अपने होठों पर चिपकाई एक विषैली मुस्कान
और उन्हें
डाइनामाइट से उड़ा दिया ।
-------
इस तरह
पेड़-पहाड़-नदी-उजाला-हरियाली-
चिड़िया-हवा के विद्रोह को
कुचलता हुआ
मैं बन गया;
उजाड़-बंजर-नीरव-निर्जला-निस्पंद
मरुभूमि के
इस अंधेरे भूतमहल का
निश्शंक-
निर्विरोध-
सर्वशक्तिमान शहंशाह;
दंभ से हुंकारता,
ध्वन्सवाशेषों को ऊंगलियों से कुरेदता---

---- यहाँ लगे हैं
पहाड़ों की अस्थियों के ढेर,
वहाँ पेड़ की नुची खाल से
अब तक टपक रहा है खून,
इधर पड़े हैं
झुलसे हुए चोंच पंछी के
और उधर कोने में पड़ी हैं
नदी की कटी हुई बेड़ी-डली टांगें---
---अरे ! वो कौन ? उजाला ?
कलमुँहा ! पहचाना नहीं जाता,
और वो देखो !
हवा की आखिरी साँस
कैसे बीच में ही अटक गयी---

---- ये सब
नायाब निशानियाँ
मेरी अप्रतिम विजय की,
देखकर नाच उठा मन,
अपने शोणित-सिक्त
विषदंत निपोरता
हँस पड़ा मैं,
और धरती-गगन में
गूँज उठा
मेरा विजय अट्टहास-
हा-हा-हा-हा-……….


--- डॉ ० प्रेमांशु भूषण ‘प्रेमिल’

गणतंत्र के चूहे

राजतंत्र में
सुना था ऐसा-
लोगों को
लूटा जाता था,
नोंचा,
मारा-पीटा जाता,
बात-बात पर-
बिना बात पर-
कोड़ों की बरसात
हुआ करती थी लेकिन;
यारों हम तो
वैसे जन हैं,
लोकतंत्र
या राजतंत्र हो-
सैन्यतंत्र
या फलांतंत्र हो-
जो जाते हैं
हर दम दूहे,
नई दवाई
जिन्हें खिलाओ
काट-पीट कर,
छील-छाल कर,
चाहे जो भी
‘टेस्ट’ करो तुम ,
कभी नहीं
कुछ कह सकते जो
भले चुभाओ
मोटे सूए-
हम लैबरोटरी के चूहे !!


--डॉ ० प्रेमांशु भूषण ‘प्रेमिल’

ब्लैक - होल

अलौकिक तेज़ से सुसज्जित,
प्रकाशपुंज दिनमान,
बाहर से प्रतीत होता ज्यों
सतत अखंडित प्रभावान;

क्रोड़ में उसकी जो झाँका,
चौंक पड़ा विज्ञान !
दिखा क्या ?
-- गहन, निविड़, प्रकाश-अभेद्य
तिमिरान्ध !

क्या अचंभा !
कोख में है
अग्नि के पलता अँधेरा,
और ये विज्ञान कहता-
समय के संग
ये अँधेरा
फैलकर
सम्पूर्ण दिनकर को निगल लेगा,
बनेगा वो
एक अँधा ‘ब्लैक –होल ’ ;
जायेगी प्रकाश-सत्ता डोल ,
उस तिमिर में
डूब जायेगा प्रभाकर-
जिस तिमिर की शक्ति इतनी,
रौशनी की इक किरण भी
उसके अंतस से निकल ना आ सकेगी !

----- इसमे तो फिर अनगिनत
सदियाँ लगेंगी,
किंतु मैं तो
देखता हूँ-
रोज कितने सूर्य,
कितने ही सितारे,
अपने अंधेरों में
खोते बन रहे हैं
‘ब्लैक-होल’ !
कब्र पर उनके
अँधेरा
नाम की तख्ती लगाता
मुस्कुराता---

----- कल जो मेरा
प्रेम-सूरज
आखिरी दम भर
लहककर
बुझ गया था,
बन गया तब
एक मैं भी ‘ब्लैक-होल’;
अंधेरे ने
ठोंक डाली
मेरे माथे
एक तख्ती----
---- और उसपे नाम ‘तेरा’ जड़ गया वो

------
---डॉ ० प्रेमांशु भूषण ‘प्रेमिल’

बैसाखी

मेज की एक टाँग के
नीचे से सड़ जाने पर,
लगानी पड़ती है उसके नीचे
कोई टेक, कोई अटकन:
(आदर्शों की छोटी टाँग को
वय्वाहरिकता की अटकन दे दो । )

कमीज़ के बाजू की कोहनी
के दरक कर फट जाने पर,
या पैंट के घिस जाने पर
लगानी पड़ती है उनपर
कोई चेपी, कोई पैबंद:
(ईमानदारी की फटी पैंट पर
रुपयों की पैबंद तो लगाने दो । )

दवाई की गोली की कड़वाहट से
जीभ को बचाने के लिए
लगानी पड़ती है उसके ऊपर
शक्कर की मीठी-मीठी
कोई सतह, कोई परत:
(सच्चाई की कड़वाहट पर
झूठ का मुलम्मा तो चढाने दो । )

[आख़िर लंगड़ों को,
कम से कम
बैसाखी का हक़ तो है ? ]

---डॉ ० प्रेमांशु भूषण ‘प्रेमिल’

Thursday, October 30, 2008

दादाजी की छड़ी

कमरे के अकेले कोने में
खड़ी रहती,
चुपचाप,
समय अपना मकड़जाल
बुनता
उसके चारों ओर,
देखती मुझे
टुक-टुक;
जब झूठ बोलकर मेरी आवाज़
शर्मा जाती,
देखती एकटक;
जब मैं रोटी की दौड़ से
थककर
निढाल
कुर्सी में पड़ जाता-
जब मैं खुश होता-
जब मैं गाता-
रोता-
किसी को ठगता-
या स्वयं ठगा जाता-
सुबह सवेरे जब
धूप की गिलहरी
मेरे बिस्तर पर फिसलती-
या जब रात
मेरी साँसों में सुबकती-
हर दिन-रात,
हर पल-छिन-
हर दम-
एक टक-
टुक-टुक-
चुप-चाप-
निर्विकार-
लगातार-
अपलक-
निहारती रहती
दादाजी की
टेढ़ी-मेढ़ी
घुन खाई छड़ी,
उनके न होने का
एहसास कराती,
हर रोज कुछ और
बुढाती छड़ी !


--डा ० प्रेमांशु भूषण ‘प्रेमिल’

मेरा कवि मित्र

विचारों के करघे पर
शब्दों के धागे
बुनते-उधेड़ते,
अक्सर मैंने देखा है,
वो एक साया
जो मेरे साथ खड़ा-
होठों पे लिए एक मुसलसल मुस्कान-
धागों में पड़ी
गाँठों को सुलझाता है ।

आवाज़ मेरी
जब भी हो के ग़मगीन,
आँसू के दरिया के किनारे बैठी,
गीतों की कागज़ी कश्तियाँ बहाती है,
मेरी आवाज़ के कानों में वो
मीठी आवाज़ में मद्धम —मद्धम,
कोई बिसरी हुई सी
नज़्म गुनगुनाता है ।

नन्हे बच्चे गीतों के जब,
मेरे दिल के अंधेरों से
घबरा के सहम जाते हैं,
थाम के हाथ,
प्यार से थपथपा के,
दे के दिलासा उनको,
वो एक छोटी सी फिर
शमा जला लाता है ।

और जब
सुनके लोग
उसकी तराशी कविता
मुझको शाबाशी देते,
बैठकर दूर
आखिरी पंक्ति में
वो भी बजाता ताली-
बड़े ही गर्व से मुस्काता है ।

वो मेरा दोस्त:
कवि-गीतकार-शायर,
बड़ा अज़ीज़ है मुझको,
क्योंकि मैं
जब भी निपट-अकेला
अपनी कलम लिए
उदास होता हूँ,
बैठकर मेरे साथ,
उमेंठकर उदासी के कान
मेरे कलम की नोंक पर वो
खुशी का कोई गीत सजा जाता है !

-- डॉ ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'

Wednesday, October 29, 2008

प्रतिबिम्ब

शब्दार्थ के अरण्य में
भाव- भिक्षुक लुप्त-
चेतना सुसुप्त -
अभिप्राय रचना का- अस्पष्ट :
अलंकरण आयास में !

पिघलते तारकोल से
काले- चिपचिपे दलदल में-
लिजलिजे कीड़ों से रेंगते
विस्मृत कर समस्त सद्-गुण
भीड़ के साथ भागती:
चीटियों का समूह !

मौलिकता की कब्र के
सिरहाने खड़ा -
क्रंदन करता पाषाण ,
अपने अस्तित्व से विलग-
दुम हिलाते कुत्ते !

लाल फूलों वाले पेड़ से
आश्रय माँगते,
गोबर की गंध में उगे
कुकुरमुत्ते !

अपने ही घर की
नींव उखाड़ते पागल ---
सचमुच !
"प्रतिबिम्ब" बदल गए हैं !!!

--- डा ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'

Sunday, October 19, 2008

याद

याद
रात भर समंदर की लहरें
साहिल की चट्टानों से
सर टकरा-टकरा कर
लहू-लुहान होती रहीं,
झाग की खूनी धार
साहिल की रेत को
रात भर सींचती रही,
सड़क के किनारे
चुपचाप खड़े
गुलमोहर की तन्हा शाखें
तमाम रात सहमती हुई
सिसकती रहीं,
कल रातभर न जाने क्यों
बेतहाशा तारे टूटते रहे,
पोखरे में सिमटे कमल पर
चाँदनी बरसती रही,
न जाने कौन सी थी बात-
क्या उसको हुआ था-
फूट-फूट कर एक कोयल
रात भर रोती रही,
दूर कोई दर्द भरे गीत गाता रहा-
एक पतंगा रौशनी पर मंडराता रहा-
हवा के संग पत्तियाँ सरसराती रहीं-
रात भर -'रात' मेरे बिस्तर की
तिरछी सिलवटों में मुँह छुपाती रही-
------
रात भर मैं नींद को बुलाता रहा,
रात भर याद तुम्हारी आती रही।
---
---डा ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'

अंतर्घात


आग है, आँधी है या बवंडर है
क्या कहूँ क्या इस जेहन के अन्दर है ।

जिसमे ख्वाब भी छुप-छुप के साँस लेते हैं,
ऐसा चुपचाप सा सोया हुआ ये खंडहर है ।

जिसकी मौजों का ख़ुद उससे कोई रिश्ता ही नहीं,
कितनी तन्हाई में डूबा हुआ समंदर है।

देखा उम्मीद से जिस भी किसी सूरज की तरफ़ ,
बुझ गया रात को ये मंजर है ।

हर तरफ़ राह में शिकारी अंधेरे,
चाँद के हाथ में भी खंजर है।


----डा ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'