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Wednesday, November 5, 2008

प्रार्थना

छंद:
हैं निर्बंध मेरे;
शब्द:
मुक्ताकाश के
उज्जवल सितारे;
भाव:
धरती के धधकते
कोख में जो
खौलता लावा
धरा है,
उसकी सारी
उष्णता और
आँच धारे-
और सागर की
अगम गहरायिओं को
नापते से-
या मलय के
स्रोत की
चिर-खोज में
खोए हुए से-
प्रीत की या
मधुरिमा को,
स्नेह की मृदु
चाँदनी को
अपने ‘पारस’ सी
तिलस्मी छुअन से
नित नए कुंदन सा निखारे ,

मेरी भाषा:
पुंपुरुष सी
शक्तिशाली,
युद्ध के
आह्वान पर
उद्यत - रणातुर
क्षत्रिय के हाथ में
स्थिर खड़ी
वो खड्ग
जो है दामिनी सी चमचमाती;
और सब उपमान मेरे:
साँस लेते,
बोलते-रोते-बिलखते,
मनुज से जीवित,
सूर्य से जागृत,
सुसंस्कृत……

------किंतु वो औरत
जो ख़ुद को
बेच देती,
उसके अन्दर की
प्रबल
जठराग्नि को
क्या पढ़ सके हैं?
या की जो
अंधे की आँखों में
गहन-अंधेरे
दलदल हैं-
उन्हें कुछ भर सके हैं?
और दंगों में
जो वहशत नाचती है,
युद्ध में
शोणित-सुसिंचित
भूमि पर
मरते हुए उस
वीर की विधवा की
ठूँठे पेड़ सी
निर्ल्लज-नंगी मांग में,
औ ‘रेप’ से पहले
बिलखती
यौवना की
आँख में जो
नंगी दहशत
नाचती है-
एक पल छिन
को भी उनकी
क्या व्यथा
ये कह सके हैं?
भूखे बच्चों को
पकाकर जो कहानी
है सुलाती माँ ,
खेतिहर वो
जिसकी सारी फसल
भीषण राक्षसी सी
बाढ़ आकर
खा गयी हो,

वो जो प्रिय के
इंतज़ार में
आज भी
उस पेड़ के
नीचे पड़ी
दिन-रात रहती,
पत्ते गिनती,
कंकडों को बीनती,
आँख पर फिर
हाथ रखकर,
पूर्व से आते हुए
रस्ते को इकटक देखती
हो गई बुढिया ,
और है पगला गयी जो,
एक वो भूखा भिखारी
रोटी जिसके हाथ से
झट छीनकर

गुम हो गया
कुत्ता आवारा,
उनकी पीड़ा-वेदना की
क्या कथा
ये कह सके हैं?
--
--- सत्य ये है,
गीत मेरे-
लक्षणा और व्यंजना के
जाल में उलझे पड़े हैं,
अर्थ-भाव-विहीन शब्दों के
भयंकर ज्वाल से झुलसे पड़े हैं !

हे प्रभु !
गीतों को मेरे नवल स्वर दे,
दर्द-पीड़ा-वेदना की
करूण उसमे आह भर दे ।


-- डॉ ० प्रेमांशु भूषण ‘प्रेमिल’

श्रद्धाँजलि

[ एक मित्र की अकाल मृत्यु पर]

एक जवान-
रंगीन-
शोख़-
चटख-
आशा भरा
मीठा सपना था,
पर क्या पता
ये रंगीनी,
ये शोखी
कितनी पीड़ाओं की
गहरी खाइयाँ
पाटती आती थीं;
क्या पता
तुम्हारी पुतलियों
के सितारे
कितनी काली-
गहरी-
तूफानी-
अँधियारी गलियों का
तम मिटाते
झिलमिलाते थे;
क्या पता
तुम्हारी मिठास ने
कितनी कड़वाहट
कितना विष-
भगवान शंकर की तरह
पी रखा था…

सच है,
सपने तो टूटते हैं
पर उफ़ !
इतना जवान-
इतना कच्चा--?
---बुद्धि हतप्रभ है:
अवाक!
उत्तरहीन!
परन्तु हाय रे विधि:
क्रूर !
अटल !
अगम !
असाध्य !

--- चिता सजी,
मंत्रोच्चार हुआ,
मुखाग्नि दी गई,
लकड़ियाँ सुलगीँ,
लपट पे लपट
आग की उठने लगी,
हवा के चंद
तेज़ थपेड़ोँ के संग
धू-धू कर
दहक उठा शरीर-
सपनों की राख नाचती रही
गर्म हवा में
घिरनी की तरह-
धुआँ बनकर
हवाओं में
बिखर गया वज़ूद-
कण-कण कर
‘पंचतत्व’
वसूलते रहे
अपना- अपना सूद-
रह गई साथ
सिर्फ़ यादों की
तेज, भीषण तपिश:
सूनी आँखों के
रेगिस्तान में
रेत के बवंडर उठाती…

…माँ की
करुण पुकार के साथ,
हम सब भी
मिलाते हैं आवाज़:
आकाशगंगा के उस पार
सितारोँ के साथ
तुम्हारी अनंत यात्रा के लिए
शुभकामनायें दोस्त,
“बेस्ट आफ लक” !!!

-- डॉ ० प्रेमांशु भूषण ‘प्रेमिल’

Monday, November 3, 2008

मात्र एक प्रश्न

"क्या यह समर्पण कर सकोगे ?"

'जिंदगी से खेलते हो
रोज तुम ये जानता हूँ,
और तुम्हारी 'नीति -शक्ति'
की महत्ता मानता हूँ,
कोटि-शत -सहस्त्र प्राणों
पर तुम्हारा क्षत्र भी है,
हस्तलिपि में रंक-जन के
भाग्य का नक्षत्र भी है,
एक भृकुटी तनी हो तो
राष्ट्र में भूचाल सा हो,
और पलती दृष्टि तो फिर
विश्व में संहार सा हो,
साम-दाम-दंड-भेद से
तुम्हारे शस्त्र भी हैं,
राजनीति, कूटनीति
के अमोघ अस्त्र भी हैं,
किंतु क्या तुम लोभ तज कर
राष्ट्रहित में क्षोभ तजकर
मनुज के उत्थान के हित
प्राण अर्पण कर सकोगे?'
--
'क्या यह समर्पण कर सकोगे'

----डॉ ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'