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Wednesday, November 5, 2008

श्रद्धाँजलि

[ एक मित्र की अकाल मृत्यु पर]

एक जवान-
रंगीन-
शोख़-
चटख-
आशा भरा
मीठा सपना था,
पर क्या पता
ये रंगीनी,
ये शोखी
कितनी पीड़ाओं की
गहरी खाइयाँ
पाटती आती थीं;
क्या पता
तुम्हारी पुतलियों
के सितारे
कितनी काली-
गहरी-
तूफानी-
अँधियारी गलियों का
तम मिटाते
झिलमिलाते थे;
क्या पता
तुम्हारी मिठास ने
कितनी कड़वाहट
कितना विष-
भगवान शंकर की तरह
पी रखा था…

सच है,
सपने तो टूटते हैं
पर उफ़ !
इतना जवान-
इतना कच्चा--?
---बुद्धि हतप्रभ है:
अवाक!
उत्तरहीन!
परन्तु हाय रे विधि:
क्रूर !
अटल !
अगम !
असाध्य !

--- चिता सजी,
मंत्रोच्चार हुआ,
मुखाग्नि दी गई,
लकड़ियाँ सुलगीँ,
लपट पे लपट
आग की उठने लगी,
हवा के चंद
तेज़ थपेड़ोँ के संग
धू-धू कर
दहक उठा शरीर-
सपनों की राख नाचती रही
गर्म हवा में
घिरनी की तरह-
धुआँ बनकर
हवाओं में
बिखर गया वज़ूद-
कण-कण कर
‘पंचतत्व’
वसूलते रहे
अपना- अपना सूद-
रह गई साथ
सिर्फ़ यादों की
तेज, भीषण तपिश:
सूनी आँखों के
रेगिस्तान में
रेत के बवंडर उठाती…

…माँ की
करुण पुकार के साथ,
हम सब भी
मिलाते हैं आवाज़:
आकाशगंगा के उस पार
सितारोँ के साथ
तुम्हारी अनंत यात्रा के लिए
शुभकामनायें दोस्त,
“बेस्ट आफ लक” !!!

-- डॉ ० प्रेमांशु भूषण ‘प्रेमिल’

1 comment:

  1. ह्रदयस्पर्शी कविता. ज्यादा कहने को शब्द ही नहीं. स्वागत.

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