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Tuesday, September 16, 2008

पापा के लिए

पापा के लिए
माली !
कड़कते घाम में
तुम्हारा
अविश्वसनीय -
अतुल-
अथक श्रम :
वो धौंकती शिरायें,
छलछलाता पसीना,
फूलती साँसे,
शिथिल पेशियाँ ........
क्या सिर्फ़ इसलिए
कि जब फूल महमहाता है-
खिलखिलाता है-
भँवरों को ललचाता है -
हवा के किल्लोल से
लचक-लचक जाता है;
तब तुम्हारी
धुँधलाती बुढाती आँखें ;
आँखें नहीं रहतीं -
स्फटिक हो जाती हैं?
.......
कौन करेगा इस त्याग की तुलना?
कर्ण या दधीचि ?

----डॉ ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'

Sunday, September 7, 2008

अफ़सोस




अफ़सोस


तेरी आँखों में लिखी थी

दास्ताँ मैं पढ़ न पाया ,

तेरे होठों की खुली दहलीज़

तक मैं चढ़ न पाया ,

चंद क़दमों पे खड़ी थी

आरज़ू बाँहें पसारे ,

पर कदम दो चार भी मैं

राह के वो बढ़ न पाया !


जिसकी सूरत आँख में थी

जिसकी खुशबू साँस में थी,

जिसकी शोखी जिंदगी थी

बात जिसकी सादगी थी,

जिसे छूकर रूह महकी

संदली सी उसकी काया,

किंतु अपने हाथ से मैं

वही मूरत गढ़ न पाया !


दर्द के बादल घनेरे

जिससे सारे छँट गए थे ,

जिंदगी के स्याह पन्ने

जिससे रौशन हो गए थे,

उसकी चंचल सी हँसी से

हर्फ़ सारे रंग गए थे,

जो बचे थे चंद हिस्से

उसे भी मैं रंग न पाया !


-----डॉ ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'

Saturday, September 6, 2008

कृतघ्न


कृतघ्न


हमने तुम्हे रचा

आसरा दिया -

मंदिरों में,

पूजा की

फूल चढाये

तुम पर विश्वास किया

अपना सर्वस्व दिया ----


तुमने हमें क्या दिया?

---

अपने ही नाम पर

भाई-भाई बाँट दिए-

रक्त पिया

नर-बलि ली !!

---

रे कृतघ्न !!

भूलता है !

हम हैं-

तो तू है

और तेरा ये मान दान

वरना तू है ही क्या ?

मिट्टी की मूरत भर !!


----- डॉ ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'