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Tuesday, September 16, 2008

पापा के लिए

पापा के लिए
माली !
कड़कते घाम में
तुम्हारा
अविश्वसनीय -
अतुल-
अथक श्रम :
वो धौंकती शिरायें,
छलछलाता पसीना,
फूलती साँसे,
शिथिल पेशियाँ ........
क्या सिर्फ़ इसलिए
कि जब फूल महमहाता है-
खिलखिलाता है-
भँवरों को ललचाता है -
हवा के किल्लोल से
लचक-लचक जाता है;
तब तुम्हारी
धुँधलाती बुढाती आँखें ;
आँखें नहीं रहतीं -
स्फटिक हो जाती हैं?
.......
कौन करेगा इस त्याग की तुलना?
कर्ण या दधीचि ?

----डॉ ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'

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