अफ़सोस
तेरी आँखों में लिखी थी
दास्ताँ मैं पढ़ न पाया ,
तेरे होठों की खुली दहलीज़
तक मैं चढ़ न पाया ,
चंद क़दमों पे खड़ी थी
आरज़ू बाँहें पसारे ,
पर कदम दो चार भी मैं
राह के वो बढ़ न पाया !
जिसकी सूरत आँख में थी
जिसकी खुशबू साँस में थी,
जिसकी शोखी जिंदगी थी
बात जिसकी सादगी थी,
जिसे छूकर रूह महकी
संदली सी उसकी काया,
किंतु अपने हाथ से मैं
वही मूरत गढ़ न पाया !
दर्द के बादल घनेरे
जिससे सारे छँट गए थे ,
जिंदगी के स्याह पन्ने
जिससे रौशन हो गए थे,
उसकी चंचल सी हँसी से
हर्फ़ सारे रंग गए थे,
जो बचे थे चंद हिस्से
उसे भी मैं रंग न पाया !
-----डॉ ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'
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