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Sunday, October 19, 2008
अंतर्घात
आग है, आँधी है या बवंडर है
क्या कहूँ क्या इस जेहन के अन्दर है ।
जिसमे ख्वाब भी छुप-छुप के साँस लेते हैं,
ऐसा चुपचाप सा सोया हुआ ये खंडहर है ।
जिसकी मौजों का ख़ुद उससे कोई रिश्ता ही नहीं,
कितनी तन्हाई में डूबा हुआ समंदर है।
देखा उम्मीद से जिस भी किसी सूरज की तरफ़ ,
बुझ गया रात को ये मंजर है ।
हर तरफ़ राह में शिकारी अंधेरे,
चाँद के हाथ में भी खंजर है।
----डा ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'
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एक-एक पंक्ति ने मुझे बहुत प्रभावित किया है। आपकी गज़लें और कहां है पढना चाहूंगा।
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