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Friday, August 8, 2008

रात से प्रात तक

रात से प्रात तक

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शाम को
रोशनी जो
सूरज से
शर्मा के रूठ जाती है ,
बूँद समय की
मेरी हथेलियों से
टकरा के
फूट जाती है,
चाँदनी काँच सी
गिर चाँद से
मेरे छत पे
टूट जाती है,
नींद से बोझिल
पलकों की
कैद से आख़िर
ओस सपनों की
छूट जाती है -
और
मस्त जवानी
सितारों की
फिर रात लूट
जाती है .........
....................
तड़के सुबह
चुनता हूँ मैं,
अपने बिस्तर
पर लुढ़के सपने
और छत पर बिखरे
चाँदनी के टुकड़े,
बीते समय की
बूँदों से
नम हाथों से
और
लुटे सितारों ने
जो
खुदकुशी की थी
कल रात ,
उनके खून से
पूरब के
आकाश का
अख़बार रंगा जाता है,
देखो !
फिर आज भी
सूरज कोई
दिन की
सूली पे
टंगा जाता है !!


------------डा ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'

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