कैफ़ियत
जज्बात की लौ से
आग चुराकर
शब्द जब
जुगनुओं से जगमगाने लगते हैं,
मस्तिषक की
आवेशित कोशिकाओं में
जब तारे फूटने लगते हैं,
हाथ
जब अनायास बढ़ते हैं,
उँगलियों में थमी कलम
जब ज्वार सी
मचलने को होती है,
कविता बहने को होती है--
तब-
न जाने कब -
न जाने कैसे -
तुम्हारी सोच
मेरे शब्दों के
नर्म काँधों पे
चुपके से
आकर बैठ जाती है ,
तेरी सूरत
हर तारे में
अपनी परछाईं छोड़ देतो है,
तेरी हँसी
कविता की धार में
नैया सी इठलाती है ,
तेरी खुशबू
भोर की नदी पर
फिसलते सोने सी
हर जज्बे में समा जाती है ,
और
इस तरह -
कविता जो आगाज़ में
मेरी कविता होती है,
अंजाम तक
आते - आते
तुम्हारी कविता
बन जाती है ----
ये मुझे क्या हो रहा है
क्यों न ख़ुद को थाम लूँ ,
सोचता हूँ आज क्या
इस कैफ़ियत को नाम दूँ !
....डा ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'
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