प्रसव - पीड़ा
एक भीषण , प्रबल आँधी
मेरे इस मस्तिष्क में
फिर चल पड़ी है ,
विचारों की हवा पगली
बदहवास सी साँय - साँय कर
भाग रही है ,
उड़ गए हैं छत
पुरानी धारणाओं
के भवन के ,
क्षत -विक्षत शव
भावनाओं के
टंगे हैं
हर दिशा में ,
वृक्ष घटनाओं के सारे
झूम उठे हैं
थपेडों में हवा के --
कहीं अर्राकर
कड़क कर
टूटती है
कोई टहनी ,
और कितने
वृक्ष जड़ से ही
उखड़कर
सोच की राहों पर
धम्म से गिर पड़े हैं
आड़े-तिरछे !
कई तस्वीरों से पत्ते
अपनी भोगी ज़िन्दगी के
उठते-गिरते-घूमते-
फिर भागते से
इन हवाओं के भंवर में
द्रुत -गति से
हैं पड़े
चकरा रहे जो -
उड़ रही है
धूल शब्दों की
नयन में चुभ रही है ,
लग रहा है
कोई कविता
फिर जेहन में उग रही है !
......... डा ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'
Prem
ReplyDeletelagta hai ki vicharo ki aandhi ab abhi tumhare man me uth rahi hai. Lekin kya ye doctari ka prabhav hai ki jyada kuchh toota, kshat-vikshat tumahari kavitaon me aa raha hai..
main chaahoonga ki tum apna ek sankalan jaroor prakshit karo.. kam se kam main to jaroor kharidoonga...
is kavita ko padh ke mujhe yaad aaya ek ghazal.. Mehdi Hasan ki.. "Shola tha jal bhuja hoon, hawaayen mujhe na do..."
Anil Kumar Thakur