अनसुनी आवाजें
साँस के धागों को मैं भी मुसलसल बुनता रहा ,
और गिरहें साल की उस डोर में गिनता रहा ।
धडकनों से जोड़कर , दिन की दहकती ईंट को
याद से ऊँची कोई दीवार मैं चुनता रहा ।
रो सके ना जो कभी , कमबख्त हँसते ही रहे
रात भर उन आँसुओं की चीख मैं सुनता रहा ।
हर अकेली रात सपनों की नसें कटा किया ,
पाक दामन चाँदनी का खून में सनता रहा ।
वक्त की आँधी से तिनके दर्द के कुछ चुन लिए ,
और टूटे इश्क का यूँ आशियाँ बनता रहा ।
साँस के धागों को मैं भी मुसलसल बुनता रहा ,
और गिरहें साल की उस डोर में गिनता रहा ।
---- डा ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'
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