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Tuesday, August 12, 2008

अनसुनी आवाजें


अनसुनी आवाजें


साँस के धागों को मैं भी मुसलसल बुनता रहा ,


और गिरहें साल की उस डोर में गिनता रहा ।


धडकनों से जोड़कर , दिन की दहकती ईंट को


याद से ऊँची कोई दीवार मैं चुनता रहा ।


रो सके ना जो कभी , कमबख्त हँसते ही रहे


रात भर उन आँसुओं की चीख मैं सुनता रहा ।


हर अकेली रात सपनों की नसें कटा किया ,


पाक दामन चाँदनी का खून में सनता रहा ।

वक्त की आँधी से तिनके दर्द के कुछ चुन लिए ,

और टूटे इश्क का यूँ आशियाँ बनता रहा ।

साँस के धागों को मैं भी मुसलसल बुनता रहा ,


और गिरहें साल की उस डोर में गिनता रहा ।


---- डा ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'

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