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Friday, August 8, 2008

समर्पण



समर्पण


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आज पथ पर मैं खड़ा हूँ - खोल बाहें -


कोई मुझ सम्पूर्ण को स्वीकार कर ले ।







रूप मेरा अप्रतिम मनहर नहीं है,


मेरी चितवन है नही जग से निराली,


काया मेरी इन्द्र सी अक्षत भी नहीं ,


जग से बढ़ कर हूँ नहीं मैं शक्तिशाली ,


किंतु दृढ़ संकल्प मैंने ये किया है,


प्रीत मेरी उसे होगी सब समर्पित ,


मुझे मेरी सभी त्रुटियों से अलंकृत


खोल जो उर-द्वार अंगीकार कर ले -


आज पथ पर मैं खड़ा हूँ - खोल बाहें -
कोई मुझ सम्पूर्ण को स्वीकार कर ले ।










शब्द बौने, निम्न भाषा ,छंद विकृत


और ओछी साज -सज्जा से लदी है,


दूर की कौडी नहीं मैं ढूंढ पाया


और उथली कल्पनाओं की नदी है,


किंतु दृढ़ संकल्प मेरा आज ये है


गीत सरे उस चरण पर वार दूँगा,


चीर कर जो छद्म पिंगल आवरण को ,


कवि हृदय की भावना से प्यार कर ले-


आज पथ पर मैं खड़ा हूँ - खोल बाहें -
कोई मुझ सम्पूर्ण को स्वीकार कर ले ।




------------डा ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'

1 comment:

  1. One of the Best by you !! Really depicts the simplicity of a poets thought yet the unimaginable gamut of emotions that he can cover in the same breath.
    Really SUPERB

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