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Tuesday, August 12, 2008

रात भर

रात भर


हवा के मंद -मंद झोंकों में


मचलती घनी काली डोरों को ,


तेरे चेहरे से किया था


जो किनारा मैंने-


हाँ! तेरी जुल्फ़ को फिर खूब सँवारा मैंने ।

आंखों से तेरे

शोख इशारे फिसले ,

थिरकती पलकों की

फ़िर ओट में आकर मचले,

अपनी प्यासी

पुरनूर निगाहों से तब

था तेरी आंखों को फिर खूब निहारा मैंने ।



आई जो तेरे सुर्ख


लबों पर जुम्बिश ,


रगों में खून की


सरगोशियाँ महसूस हुई,


तेरी पेशानी पे जब


मोती सी चमकी शबनम-


अपनी बाहों का दिया तुमको सहारा मैंने ,


हाँ! तेरी जुल्फ़ को फिर खूब सँवारा मैंने ।




तेरे जिस्म की


चंदन सी महकती मखमल,


मेरी आगोश में


एक उम्र तक सुलगती रही,


थक गई तुम


तो सुलाया था फिर -


रात भर, बाहों में एक शोख़ सितारा मैंने,


हाँ! तेरी जुल्फ़ को फिर खूब सँवारा मैंने ।


----डा ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'


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