रात भर
हवा के मंद -मंद झोंकों में
मचलती घनी काली डोरों को ,
तेरे चेहरे से किया था
जो किनारा मैंने-
हाँ! तेरी जुल्फ़ को फिर खूब सँवारा मैंने ।
आंखों से तेरे
शोख इशारे फिसले ,
थिरकती पलकों की
फ़िर ओट में आकर मचले,
अपनी प्यासी
पुरनूर निगाहों से तब
था तेरी आंखों को फिर खूब निहारा मैंने ।
आई जो तेरे सुर्ख
लबों पर जुम्बिश ,
रगों में खून की
सरगोशियाँ महसूस हुई,
तेरी पेशानी पे जब
मोती सी चमकी शबनम-
अपनी बाहों का दिया तुमको सहारा मैंने ,
हाँ! तेरी जुल्फ़ को फिर खूब सँवारा मैंने ।
तेरे जिस्म की
चंदन सी महकती मखमल,
मेरी आगोश में
एक उम्र तक सुलगती रही,
थक गई तुम
तो सुलाया था फिर -
रात भर, बाहों में एक शोख़ सितारा मैंने,
हाँ! तेरी जुल्फ़ को फिर खूब सँवारा मैंने ।
----डा ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'
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