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Sunday, October 19, 2008

याद

याद
रात भर समंदर की लहरें
साहिल की चट्टानों से
सर टकरा-टकरा कर
लहू-लुहान होती रहीं,
झाग की खूनी धार
साहिल की रेत को
रात भर सींचती रही,
सड़क के किनारे
चुपचाप खड़े
गुलमोहर की तन्हा शाखें
तमाम रात सहमती हुई
सिसकती रहीं,
कल रातभर न जाने क्यों
बेतहाशा तारे टूटते रहे,
पोखरे में सिमटे कमल पर
चाँदनी बरसती रही,
न जाने कौन सी थी बात-
क्या उसको हुआ था-
फूट-फूट कर एक कोयल
रात भर रोती रही,
दूर कोई दर्द भरे गीत गाता रहा-
एक पतंगा रौशनी पर मंडराता रहा-
हवा के संग पत्तियाँ सरसराती रहीं-
रात भर -'रात' मेरे बिस्तर की
तिरछी सिलवटों में मुँह छुपाती रही-
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रात भर मैं नींद को बुलाता रहा,
रात भर याद तुम्हारी आती रही।
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---डा ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'

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