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Wednesday, October 29, 2008

प्रतिबिम्ब

शब्दार्थ के अरण्य में
भाव- भिक्षुक लुप्त-
चेतना सुसुप्त -
अभिप्राय रचना का- अस्पष्ट :
अलंकरण आयास में !

पिघलते तारकोल से
काले- चिपचिपे दलदल में-
लिजलिजे कीड़ों से रेंगते
विस्मृत कर समस्त सद्-गुण
भीड़ के साथ भागती:
चीटियों का समूह !

मौलिकता की कब्र के
सिरहाने खड़ा -
क्रंदन करता पाषाण ,
अपने अस्तित्व से विलग-
दुम हिलाते कुत्ते !

लाल फूलों वाले पेड़ से
आश्रय माँगते,
गोबर की गंध में उगे
कुकुरमुत्ते !

अपने ही घर की
नींव उखाड़ते पागल ---
सचमुच !
"प्रतिबिम्ब" बदल गए हैं !!!

--- डा ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'

4 comments:

  1. लाज़बाब रचना आपका ब्लॉग जगत में स्वागत है . निरंतरता की चाहत है . मेरे ब्लॉग पर पधारें मेरा आमंत्रण स्वीकारें

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  2. स्वागत है चिट्ठाजगत में। यूं ही लिखते रहें,

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  3. अपने ही घर की
    नींव उखाड़ते पागल ---
    सचमुच !
    "प्रतिबिम्ब" बदल गए हैं !!!
    अच्छी लगी कविता आपकी. शुभकामनाएं और स्वागत मेरे ब्लॉग पर भी.

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