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Friday, October 31, 2008

बैसाखी

मेज की एक टाँग के
नीचे से सड़ जाने पर,
लगानी पड़ती है उसके नीचे
कोई टेक, कोई अटकन:
(आदर्शों की छोटी टाँग को
वय्वाहरिकता की अटकन दे दो । )

कमीज़ के बाजू की कोहनी
के दरक कर फट जाने पर,
या पैंट के घिस जाने पर
लगानी पड़ती है उनपर
कोई चेपी, कोई पैबंद:
(ईमानदारी की फटी पैंट पर
रुपयों की पैबंद तो लगाने दो । )

दवाई की गोली की कड़वाहट से
जीभ को बचाने के लिए
लगानी पड़ती है उसके ऊपर
शक्कर की मीठी-मीठी
कोई सतह, कोई परत:
(सच्चाई की कड़वाहट पर
झूठ का मुलम्मा तो चढाने दो । )

[आख़िर लंगड़ों को,
कम से कम
बैसाखी का हक़ तो है ? ]

---डॉ ० प्रेमांशु भूषण ‘प्रेमिल’

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