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Thursday, October 30, 2008

दादाजी की छड़ी

कमरे के अकेले कोने में
खड़ी रहती,
चुपचाप,
समय अपना मकड़जाल
बुनता
उसके चारों ओर,
देखती मुझे
टुक-टुक;
जब झूठ बोलकर मेरी आवाज़
शर्मा जाती,
देखती एकटक;
जब मैं रोटी की दौड़ से
थककर
निढाल
कुर्सी में पड़ जाता-
जब मैं खुश होता-
जब मैं गाता-
रोता-
किसी को ठगता-
या स्वयं ठगा जाता-
सुबह सवेरे जब
धूप की गिलहरी
मेरे बिस्तर पर फिसलती-
या जब रात
मेरी साँसों में सुबकती-
हर दिन-रात,
हर पल-छिन-
हर दम-
एक टक-
टुक-टुक-
चुप-चाप-
निर्विकार-
लगातार-
अपलक-
निहारती रहती
दादाजी की
टेढ़ी-मेढ़ी
घुन खाई छड़ी,
उनके न होने का
एहसास कराती,
हर रोज कुछ और
बुढाती छड़ी !


--डा ० प्रेमांशु भूषण ‘प्रेमिल’

2 comments:

  1. सुंदर रचना मज़ा आ गया
    लिखते रहें पढाते रहे

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  2. baht hi sudar rachna majaa aagaya! 'http://pinturaut.blogspot.com/'http://janmaanas.blogspot.com/

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