विचारों के करघे पर
शब्दों के धागे
बुनते-उधेड़ते,
अक्सर मैंने देखा है,
वो एक साया
जो मेरे साथ खड़ा-
होठों पे लिए एक मुसलसल मुस्कान-
धागों में पड़ी
गाँठों को सुलझाता है ।
आवाज़ मेरी
जब भी हो के ग़मगीन,
आँसू के दरिया के किनारे बैठी,
गीतों की कागज़ी कश्तियाँ बहाती है,
मेरी आवाज़ के कानों में वो
मीठी आवाज़ में मद्धम —मद्धम,
कोई बिसरी हुई सी
नज़्म गुनगुनाता है ।
नन्हे बच्चे गीतों के जब,
मेरे दिल के अंधेरों से
घबरा के सहम जाते हैं,
थाम के हाथ,
प्यार से थपथपा के,
दे के दिलासा उनको,
वो एक छोटी सी फिर
शमा जला लाता है ।
और जब
सुनके लोग
उसकी तराशी कविता
मुझको शाबाशी देते,
बैठकर दूर
आखिरी पंक्ति में
वो भी बजाता ताली-
बड़े ही गर्व से मुस्काता है ।
वो मेरा दोस्त:
कवि-गीतकार-शायर,
बड़ा अज़ीज़ है मुझको,
क्योंकि मैं
जब भी निपट-अकेला
अपनी कलम लिए
उदास होता हूँ,
बैठकर मेरे साथ,
उमेंठकर उदासी के कान
मेरे कलम की नोंक पर वो
खुशी का कोई गीत सजा जाता है !
-- डॉ ० प्रेमांशु भूषण 'प्रेमिल'
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Thursday, October 30, 2008
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आदरनिया डाक्टर साहब। प्रोत्साहन के लिये शुक्रिया आप का ब्लॉग follow कर रहा हूँ
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