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Friday, October 31, 2008

ब्लैक - होल

अलौकिक तेज़ से सुसज्जित,
प्रकाशपुंज दिनमान,
बाहर से प्रतीत होता ज्यों
सतत अखंडित प्रभावान;

क्रोड़ में उसकी जो झाँका,
चौंक पड़ा विज्ञान !
दिखा क्या ?
-- गहन, निविड़, प्रकाश-अभेद्य
तिमिरान्ध !

क्या अचंभा !
कोख में है
अग्नि के पलता अँधेरा,
और ये विज्ञान कहता-
समय के संग
ये अँधेरा
फैलकर
सम्पूर्ण दिनकर को निगल लेगा,
बनेगा वो
एक अँधा ‘ब्लैक –होल ’ ;
जायेगी प्रकाश-सत्ता डोल ,
उस तिमिर में
डूब जायेगा प्रभाकर-
जिस तिमिर की शक्ति इतनी,
रौशनी की इक किरण भी
उसके अंतस से निकल ना आ सकेगी !

----- इसमे तो फिर अनगिनत
सदियाँ लगेंगी,
किंतु मैं तो
देखता हूँ-
रोज कितने सूर्य,
कितने ही सितारे,
अपने अंधेरों में
खोते बन रहे हैं
‘ब्लैक-होल’ !
कब्र पर उनके
अँधेरा
नाम की तख्ती लगाता
मुस्कुराता---

----- कल जो मेरा
प्रेम-सूरज
आखिरी दम भर
लहककर
बुझ गया था,
बन गया तब
एक मैं भी ‘ब्लैक-होल’;
अंधेरे ने
ठोंक डाली
मेरे माथे
एक तख्ती----
---- और उसपे नाम ‘तेरा’ जड़ गया वो

------
---डॉ ० प्रेमांशु भूषण ‘प्रेमिल’

2 comments:

  1. bhut sudar rachna hai! ak dusre ka sampark banaaye rakhe.....

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  2. Its so nice to see you writing these thoughtful ones...really really feels good see that you are in touch with your literary aspects...

    Amit Thakur (48)

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