अलौकिक तेज़ से सुसज्जित,
प्रकाशपुंज दिनमान,
बाहर से प्रतीत होता ज्यों
सतत अखंडित प्रभावान;
क्रोड़ में उसकी जो झाँका,
चौंक पड़ा विज्ञान !
दिखा क्या ?
-- गहन, निविड़, प्रकाश-अभेद्य
तिमिरान्ध !
क्या अचंभा !
कोख में है
अग्नि के पलता अँधेरा,
और ये विज्ञान कहता-
समय के संग
ये अँधेरा
फैलकर
सम्पूर्ण दिनकर को निगल लेगा,
बनेगा वो
एक अँधा ‘ब्लैक –होल ’ ;
जायेगी प्रकाश-सत्ता डोल ,
उस तिमिर में
डूब जायेगा प्रभाकर-
जिस तिमिर की शक्ति इतनी,
रौशनी की इक किरण भी
उसके अंतस से निकल ना आ सकेगी !
----- इसमे तो फिर अनगिनत
सदियाँ लगेंगी,
किंतु मैं तो
देखता हूँ-
रोज कितने सूर्य,
कितने ही सितारे,
अपने अंधेरों में
खोते बन रहे हैं
‘ब्लैक-होल’ !
कब्र पर उनके
अँधेरा
नाम की तख्ती लगाता
मुस्कुराता---
----- कल जो मेरा
प्रेम-सूरज
आखिरी दम भर
लहककर
बुझ गया था,
बन गया तब
एक मैं भी ‘ब्लैक-होल’;
अंधेरे ने
ठोंक डाली
मेरे माथे
एक तख्ती----
---- और उसपे नाम ‘तेरा’ जड़ गया वो
------
---डॉ ० प्रेमांशु भूषण ‘प्रेमिल’
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Friday, October 31, 2008
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bhut sudar rachna hai! ak dusre ka sampark banaaye rakhe.....
ReplyDeleteIts so nice to see you writing these thoughtful ones...really really feels good see that you are in touch with your literary aspects...
ReplyDeleteAmit Thakur (48)